देश में एक नई सुबह लाएंगे जैसा संकल्प लेने वाले अन्ना हज़ारे जब सड़कों पर निकले, तो उनके लिए उमड़े अपार जनसमर्थन को देखकर राजनीतिक दलों में खौफ छा गया और उन्होंने मीडिया के माध्यम से इस 75 वर्षीय संत, राष्ट्रभक्त एवं समाजसेवी के हौसले पर हमले का षड्यंत्र रच डाला, लेकिन क्या कहीं कोई उस मशाल को भी फूंक मारकर बुझा पाया है, जो ईमानदारी रूपी ईंधन के सहारे जल रही हो! क्या कहती है, यह विश्लेषणात्मक रिपोर्ट…
अन्ना हज़ारे के सुख के दिन अब समाप्त हो गए हैं. 2011 का अगस्त उनके लिए वरदान का महीना था. उन्होंने दिल्ली के रामलीला मैदान में भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ अनशन शुरू किया और देश आज उनके साथ खड़ा हो गया. ऐसा लगा, मानो सारा हिंदुस्तान उनकी जान बचाना चाहता है, क्योंकि बच्चे, औरतें एवं बूढ़े अनशन भी कर रहे थे और जुलूस भी निकाल रहे थे.
अब देखिए टेलीविजन चैनलों का खेल. टेलीविजन चैनल इस अनशन को एक धारावाहिक की तरह प्रसारित करने लगे. उन दिनों टेलीविजन चैनलों के पास कोई दूसरा विषय नहीं था, इसलिए उन्होंने अन्ना हज़ारे के अनशन को अपना विषय बना लिया. दूसरी तरफ़ लोगों को लगा कि यह एक अच्छा मौक़ा है कि हम अपनी परेशानियों, दिक्कतों और सरकार से अपनी नाराज़गी को अन्ना हज़ारे का समर्थन करके प्रकट कर सकते हैं. इसमें वे सारे लोग भी शामिल हुए, जो अक्सर सरकार का विरोध तो करना चाहते हैं, लेकिन डर या कायरता की वजह से कुछ भी कर नहीं पाते. वे सारे लोग इसमें शामिल हो गए और उन्होंने अन्ना हज़ारे का नाम और तिरंगा झंडा अपनी भड़ास निकालने के लिए प्रतीक की तरह इस्तेमाल किया. मजे की बात तो यह है कि मीडिया द्वारा शुरू में अन्ना हज़ारे को दिया गया समर्थन बाद में मीडिया के गले की हड्डी बन गया, क्योंकि जन-उभार इतना ज़्यादा बढ़ गया कि मीडिया चाहकर भी उस अनशन को डाउन प्ले नहीं कर पाया. और जब डाउन प्ले नहीं कर पाया, तो सारे टेलीविजन चैनल एक-दूसरे की प्रतिस्पर्धा में आ गए. नतीजे के तौर पर अन्ना हज़ारे देशव्यापी आक्रोश और गुस्से के प्रतिबिंब बन गए.
अन्ना की वह आसमान छू रही साख इतनी ज़्यादा गंभीर थी कि संसद को एक स्वर में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पास करना ही पड़ा, क्योंकि संसद और पूरी सरकार को तब यह लगा कि अगर प्रस्ताव अंतत: पास नहीं हुआ, तो इस देश में बुरी तरह हिंसा शुरू हो जाएगी और लोग सड़कों पर उतर कर क़ानून अपने हाथ में ले लेंगे. हालांकि, अन्ना हज़ारे ने लगातार अहिंसा की वकालत की और बार-बार गांधी जी एवं उनके आंदोलन का उदाहरण लोगों के सामने रखा और उसका अद्भुत परिणाम यह निकला कि इतने बड़े देशव्यापी आंदोलन में एक भी ठेला नहीं लुटा, न तो कोई खोमचे वाला रोया और न ही कहीं पर अपराधियों ने इस आंदोलन को अपने हाथ में लेने की कोशिश की. अन्ना के सात्विक आंदोलन की सफलता का इससे बड़ा उदाहरण और कोई नहीं दिया जा सकता. देखते ही देखते अन्ना 120 करोड़ लोगों की आशाओं के मुखर स्वरूप बन गए.
31 मार्च, 2013 में अन्ना दोबारा अपनी यात्रा पर निकले. अन्ना से सबसे बड़ी चूक यह हुई कि वह अनशन के फौरन बाद देश में नहीं निकले. एक तरफ़ उनकी तबियत अनशन की वजह से बहुत गिरी हुई थी, तो दूसरी तरफ़ उनके साथियों के सामने एक भ्रामक चित्र खड़ा हो गया था. दरअसल, उन्हें लगा कि जनता उनके साथ खड़ी हो गई है और यह सारा जनसमर्थन उन्हें अपने लिए नज़र आया, जबकि यह जनसमर्थन अन्ना के बहाने अपनी सारी तकलीफों के ख़िलाफ़ गुस्से का इजहार था. अन्ना के साथियों के सामने कोई रोडमैप नहीं था कि इस जन-उभार को किस तरह संगठित करना है और लोगों के सामने वैचारिक दिशा क्या और किस रूप में रखनी है. नतीजे के तौर पर दो साल ऊहापोह में बीत गए. अंतर्विरोध इतना बढ़ा कि अरविंद केजरीवाल एवं उनके साथी अन्ना से अलग हो गए. वे सिस्टम के भीतर जाकर सिस्टम को साफ़ करना चाहते थे, जबकि अन्ना एक्स्ट्रा पार्लियामेंट्री अपोजिशन क्रिएट करना चाहते थे, जो कि जयप्रकाश नारायण या गांधी का सपना था. इसका मतलब यह कि जनता का दबाव और जनता का संगठन इतना ज़्यादा महत्वपूर्ण हो जाए कि वह संसद और विधानसभाओं को निर्देशित कर सके और जहां उसे लगे कि संसद उसकी आकांक्षाओं के अनुरूप क़ानून नहीं बना रही है, तो ऐसे में वहां पर वह संसद को अपनी इच्छानुसार क़ानून बनाने के लिए मजबूर कर दे.
दरअसल, यह वैचारिक मतभेद था और इसने अन्ना हज़ारे को शिथिल कर दिया. अन्ना हजारे रालेगण सिद्धि में लगभग बिना किसी आंदोलन के स्थिर हो गए. हालांकि, वह इस बीच महाराष्ट्र में कई मीटिंगों में भी गए, लेकिन दो साल का वह समय, जब लोग अन्ना को अपने बीच चाहते थे, उस समय वह लोगों के पास नहीं जा पाए. इस दौरान लोगों के बीच अफवाहें फैलीं कि अन्ना अब देश में नहीं घूमेंगे. हालांकि, दूसरी तरफ़ अन्ना लगातार यह कोशिश कर रहे थे और घोषणा कर रहे थे कि वह देश में घूमेंगे, पर लोग घोषणा नहीं, अन्ना का ऐक्शन देखना चाहते थे. ऐसे में अन्ना अपने साथियों की अकर्मण्यता की वजह से न तो आंदोलन की शुरुआत कर पाए और न ही अपनी यात्रा की.
अन्ना पटना के गांधी मैदान में 30 जनवरी को सभा करना चाहते थे. इसलिए उन्होंने साथियों से अपनी यह इच्छा जाहिर की. उनके साथियों एवं सहयोगियों ने गांधी मैदान की मीटिंग की तैयारी का ़फैसला लेने में खासी देर लगाई और अन्ना से यह कहा कि न तो लोग तैयार हैं और न ही सरकार तैयार है कि आपको वह कुछ मदद करे. शायद अन्ना के लिए यह दूसरा झटका था, जब उन्हें लगा कि उनके पास ऐसे लोग नहीं हैं, जो उनकी इच्छा के अनुसार व्यवस्था परिवर्तन की उनकी बात लोगों के बीच ले जा सकें. ऐसे में वह खामोश होकर बैठ गए. स्थितियां ऐसी बनीं कि 30 जनवरी को अन्ना ने गांधी मैदान में मीटिंग की. एक बिल्कुल नई टीम खड़ी हो गई और उसने 15 दिनों के भीतर अन्ना की इच्छा को बिहार के लोगों के बीच पहुंचा दिया.
यात्रा अमृतसर से शुरू हुई, लेकिन इस बार वह मीडिया के डार्लिंग नहीं बन पाए. उनकी यात्रा को मीडिया ने नेशनल इवेंट नहीं बनाया. उनकी यात्रा का पूरा प्रसारण कुछ इस तरह किया गया, मानो कोई एक शख्स जबरदस्ती कुछ कर रहा है. लेकिन चूंकि कुछ भीड़ आ गई है, इसलिए उसका दिखाया जाना ज़रूरी है. हालांकि लोकल टीवी चैनलों, क्षेत्रीय भाषा के चैनल और केबल टीवी ने इस यात्रा को बहुत ही महत्वपूर्ण मानकर दिखाया. स्थानीय अख़बारों ने इसके ऊपर एक, डेढ़, दो, तीन पेज तक दिए, लेकिन तथाकथित राष्ट्रीय अख़बार और तथाकथित राष्ट्रीय चैनल अन्ना की इस यात्रा से दूर ही रहे.
यहीं पर एक जननेता के करिश्मे की तस्वीर देखने को मिलती है. स़िर्फ अन्ना की इच्छा पोस्टरों, पर्चों और टेलीविजन के जरिए लोगों के पास पहुंची और लोग गांधी मैदान में आ गए. गांधी मैदान पटना का वह ऐतिहासिक मैदान है, जहां गांधी जी, जयप्रकाश जी एवं बिहार के तमाम नेता अपनी सभाएं करते रहे हैं, लेकिन लोगों के बीच जयप्रकाश नारायण के आंदोलन की याद अभी भी ताजा है. अन्ना की रैली से लगभग एक महीने पहले 60 करोड़ रुपये खर्च करके एक रैली हुई, जिसमें मात्र ढाई लाख लोग इकट्ठा हुए. वहीं दूसरी ओर 30 जनवरी को अन्ना की रैली में बिना एक कप चाय पिलाए पौने दो लाख लोग इकट्ठा हुए. अन्ना के साथियों ने गांधी मैदान को बुक कराने का, स्टेज एवं लाइट लगाने का पैसा खर्च किया. बाकी पैसा लोगों ने अपने आप खर्च किया. अगर दोनों रैलियों की तुलना करें, तो अन्ना की रैली बिना किसी खर्चे के लोगों की भागीदारी का सुबूत थी, जबकि इसमें कोई दो राय नहीं कि उसके पहले गांधी मैदान में होने वाली तमाम रैलियां साधनों के बल पर बुलाई गई भीड़ का प्रदर्शन मात्र थीं.
अन्ना 31 मार्च से देशव्यापी जनतंत्र यात्रा पर निकले. उनके साथ पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वी के सिंह, सूफी जिलानी, चौथी दुनिया के संपादक संतोष भारतीय और सामान्य लोगों का एक काफिला था. यात्रा अमृतसर से शुरू हुई, लेकिन इस बार वह मीडिया के डार्लिंग नहीं बन पाए. उनकी यात्रा को मीडिया ने नेशनल इवेंट नहीं बनाया. उनकी यात्रा का पूरा प्रसारण कुछ इस तरह किया गया, मानो कोई एक शख्स जबरदस्ती कुछ कर रहा है. लेकिन चूंकि कुछ भीड़ आ गई है, इसलिए उसका दिखाया जाना ज़रूरी है. हालांकि लोकल टीवी चैनलों, क्षेत्रीय भाषा के चैनल और केबल टीवी ने इस यात्रा को बहुत ही महत्वपूर्ण मानकर दिखाया. स्थानीय अख़बारों ने इसके ऊपर एक, डेढ़, दो, तीन पेज तक दिए, लेकिन तथाकथित राष्ट्रीय अख़बार और तथाकथित राष्ट्रीय चैनल अन्ना की इस यात्रा से दूर ही रहे. टेलीविजन चैनल नहीं चाहते थे कि अन्ना की यह यात्रा सफल हो, इसलिए टेलीविजन चैनलों एवं अख़बारों में, बाकायदा लगभग हर प्रदेश में यह ख़बर प्रसारित-प्रकाशित की गई कि अन्ना ने यात्रा कैंसिल कर दी है, वह अमुक शहर में नहीं आने वाले हैं, उनकी तबियत खराब हो गई है, इसलिए वह वापस जाने वाले हैं. सच तो यह है कि जब इस तरह की ख़बरों को प्रिंट एक बार छापे और टेलीविजन दिन में कई-कई बार दिखाए, तो इसे अन्ना के ख़िलाफ़ एक सोचा-समझा षड्यंत्र ही कहा जाएगा. अन्ना हज़ारे से टेलीविजन या प्रिंट के पत्रकार मिलते थे और सवालों के नाम पर उनसे उनके टूटते जादू, अरविंद केजरीवाल से मतभेद और किरण बेदी की अनुपस्थिति के बारे में पूछते थे. मीडिया उनसे हर जगह पूछता था कि आपको सुनने लाखों की भीड़ क्यों नहीं आ रही है? और यहीं पर मीडिया के दिमागी दिवालिएपन का पता चलता है. हैरानी की बात तो यह है कि मीडिया को यात्रा और रैली में फ़़र्क करना नहीं आया! यात्रा सड़क से दाएं-बाएं स्थित बस्तियों के लोगों को संदेश देने के लिए होती है और रैली चारों तरफ़ से लोगों को इकट्ठा करके एक जगह संदेश देने के लिए होती है. अन्ना रैली नहीं, यात्रा कर रहे थे और इसीलिए सारा मीडिया उनकी इस यात्रा को सुपर फ्लॉप शो के रूप में प्रचारित करने लगा. मीडिया की अनदेखी का उदाहरण यह है कि कहीं किसी ने नहीं लिखा कि किस तरह सैकड़ों या हज़ारों लोग छह-छह घंटे इंतज़ार कर अन्ना हज़ारे का स्वागत करते थे और किस तरह वह आख़िरी मीटिंग में पहुंचते थे, तो सात-साढ़े सात घंटे तक इंतज़ार कर रहे लोगों से माफी मांगते थे. बावजूद इसके लोग उनका भाषण सुनने के लिए बैठे रहते थे और अन्ना उनके बीच में भरपूर बोलते थे. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को ये सारी चीजें नज़र ही नहीं आईं या फिर नज़र आईं, तो उसने एक कॉन्सपिरेसी के तहत इन्हें लोगों के सामने नहीं आने दिया.
अब देखिए मीडिया ने किया क्या! उसने हर उस जगह की घटना को कवर किया, जहां पर कम भीड़थी या जहां पर अन्ना तीन घंटे के बाद पहुंचने वाले थे, वहां की खाली जगह को उसने अपना विषय बनाया. कुछ चैनलों ने तो बेशर्मी की हद ही पार कर दी. उनका कैमरामैन वहां था, खाने की जगह थी, मीटिंग वहां नहीं होनी थी, लेकिन उन्होंने वहां दिखाया कि अन्ना हज़ारे के भाषण वाली जगह पर एक भी आदमी नहीं है. इस चीज को भी उन्होंने ग्राफिक्स के माध्यम से दिखाया. अब सवाल यह उठता है कि अगर कोई आदमी वहां नहीं था, तो उसकी फुटेज दिखाई जा सकती थी. लेकिन ऐसी जगह, जहां खाने के लिए दो घंटे के बाद अन्ना आने वाले हों, उस खाली पंडाल की तस्वीर टेलीविजन पर यह कहते हुए दिखाई गई कि अब अन्ना का जादू ख़त्म हो गया है. लोकल चैनल इससे बिल्कुल उलट व्यवहार कर रहे थे. वे अन्ना की भीड़ और रैली दोनों दिखा रहे थे. जब अन्ना की यात्रा देहरादून में ख़त्म हुई, उसके अगले दिन आईबीएन-7 ने एक कार्यक्रम दिखाया, जिसमें उसने लिखा, अन्ना : एक सपने की मौत.
दरअसल, यह पूरा कार्यक्रम अरविंद केजरीवाल के पक्ष में था और टेलीविजन चैनल का संवाददाता यह साबित करने में जुटा हुआ था कि चूंकि अरविंद केजरीवाल अन्ना से अलग हो गए हैं, इसीलिए अन्ना नामक सपने की मौत हो गई है. यह टेलीविजन चैनल और इसका संवाददाता इतने जानकार बेवकूफ थे कि इन्होंने दिखाया कि भारतीय जनता पार्टी के समर्थक एक पूंजीपति के घर पर अन्ना की बाबा रामदेव और जनरल वी के सिंह से मुलाकात हुई. उस घर की तस्वीर भी इस टेलीविजन चैनल ने दिखाई, जबकि इस टेलीविजन चैनल के इस महान संवाददाता को यह पता था कि जहां यह मीटिंग हुई, वह एक अख़बार का दक्षिणी दिल्ली का दफ्तर है. इसके बावजूद यह झूठ आईबीएन-7 के संवाददाता ने बोला. और यहीं पर सवाल खड़ा होता है कि अगर संवाददाता अपनी इच्छा के हिसाब से वस्तुस्थिति को दरकिनार करके रिपोर्ट करे, तो क्या हम यह नतीजा निकालें कि राजदीप सरदेसाई और आशुतोष इसी तरह की रिपोर्टिंग कराना चाहते हैं या दोनों अपने को बड़ा जानकार समझते हैं और संपादक का अहं ओढ़े हुए पत्रकार हैं. उनके चैनल में किस तरह की रिपोर्ट हो रही है, इस पर बिना ध्यान दिए ये गैर ज़िम्मेदाराना रिपोर्ट को बढ़ावा देते हैं. मेरा मानना है कि ऐसा है नहीं, क्योंकि जिस तरह का निष्कर्ष उनके पत्रकार निकाल रहे हैं, अगर वैसा ही निष्कर्ष इन दोनों संपादकों के बारे में निकाला जाने लगे, तो शायद इनके साथ अन्याय होगा. लेकिन निष्कर्ष निकालना इसलिए ज़रूरी है, क्योंकि ये अपने चैनल में होने वाली गैर ज़िम्मेदार पत्रकारिता को बढ़ावा देते नज़र आ रहे हैं. ठीक यही बात दूसरे टेलीविजन चैनलों, जिन्हें राष्ट्रीय टेलीविजन चैनल कहते हैं, में भी दिखाई दी. इन सारी घटनाओं से यह मानना चाहिए या फिर शक करना चाहिए कि कहीं न कहीं बड़े पूंजीपतियों और सरकार के बीच के इशारे का नतीजा अन्ना हज़ारे की यात्रा को बर्बाद करने का एक सोचा-समझा ़फैसला था. लेकिन जनता ने टेलीविजन चैनलों की इस साजिश का जवाब दिया. अन्ना को सड़क चलते हुए हर जगह स्वागत करते झुंड मिले. उनका इंतज़ार छह-छह, सात-सात घंटे करते लोगों की भीड़ मिली. उन्हें हज़ारों लोगों ने अपना एक साल देने का वादा किया. राजनीतिक दलों की मीटिंगों में आम तौर पर पार्टी में काम करने वाले लोगों के अलावा, कोई नहीं जाता, केवल किराए की भीड़ जाती है, लेकिन अन्ना की मीटिंगों में आम घरों की औरतें, बच्चे, नौजवान एवं बुजुर्ग दिखाई दिए. 98 साल की उम्र का व्यक्ति अन्ना की सभा में यह कसम खाता दिखा कि वह देश के लिए अपनी जान दे देगा, उसे स़िर्फ हुकुम चाहिए. पंजाब हो या हरियाणा या फिर पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हर जगह बड़ी-बड़ी सभाएं हुईं और इन सभाओं में अन्ना हज़ारे को लोगों में वही जुनून देखने को मिला, जो 2011 के उपवास के
समय था.
लोगों पर अख़बारों एवं टेलीविजन की ख़बरों का असर पड़ता था कि अन्ना हज़ारे उनके यहां नहीं आने वाले, जबकि वह अगले दिन उनके यहां पहुंचते थे, लेकिन जो भीड़ आती थी, वह उस भीड़ के मुकाबले कम होती थी, जितनी होनी चाहिए थी. यह रहस्य का विषय है कि बिना किसी सोर्स के टेलीविजन चैनलों और अन्य अख़बारों में ये ख़बरें कैसे प्रसारित-प्रकाशित होती थीं कि अन्ना हज़ारे का दौरा कैंसिल हो गया है या उनकी तबियत ख़राब हो गई है और इसीलिए वह वापस चले गए. लेकिन जब मीटिंग हो जाती थी, तो स्थानीय अख़बारों की यह मजबूरी बन जाती थी कि वे अन्ना की ख़बरों को कवरेज दें. लेकिन यहीं एक दूसरा खेल होता था. अन्ना की इस यात्रा की ख़बर एक ज़िले से दूसरे ज़िले तक नहीं पहुंचती थी, क्योंकि वे पेज उसी ज़िले में रह जाता था, जिसमें अन्ना जाते थे. इसलिए अन्ना की यात्रा को मीडिया की तरफ़ से चैलेंज झेलना पड़ा. अन्ना ने उसका बखूबी उत्तर दिया. हापुड़, बुलंदशहर, पिलखुवा, अलीगढ़, भिवानी, भटिंडा, मोंगा लगभग हर जगह हज़ारों लोग अन्ना का स्वागत करते दिखाई दिए. कहीं-कहीं पर अन्ना की सभा चार घंटे देर से शुरू हुई, लेकिन फिर भी लोगों ने ढाई घंटे तक उनकी सभा में पिनड्रॉप साइलेंस के साथ अपनी उपस्थिति बनाए रखी.
हिंदुस्तान के सभी राजनीतिक दल अन्ना हज़ारे से डरे हुए हैं. डरने का कारण भी है. लगभग हर जगह उनकी सभाओं में यह बताया गया कि वह भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी, शिक्षा एवं स्वास्थ्य व्यवस्था के टूटे हुए ढांचे के ख़िलाफ़ एक गंभीर अभियान छेड़ने वाले हैं. उनकी सभाओं में राजनीतिक दलों को नाम लेकर चेतावनी भी दी गई. अन्ना हज़ारे ने ख़ुद कहा कि भारत की संसद ने उन्हें धोखा दिया. 120 करोड़ लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रधानमंत्री ने उन्हें लिखकर वादा किया और फिर उसे तोड़ दिया. अन्ना हज़ारे राजनीतिक दलों के ख़िलाफ़ जन उम्मीदवार के पक्ष में बोले और संकेत में यह साफ़ कर दिया कि जनता अपने उम्मीदवार ख़ुद चुने और राजनीतिक दलों के उम्मीदवारों के ख़िलाफ़ उन्हें खड़ा करे. राजनीतिक दलों को यहीं पर अन्ना हज़ारे सबसे ज़्यादा खटके. पहले उन्हें लगता था कि अन्ना स़िर्फ एक नैतिक शक्ति हैं और वह कभी भी व्यवस्था जैसी चीज या सरकार पर नहीं बोलेंगे, लेकिन अपने इस रुख पर कि नई संसद बनानी चाहिए, वहां ऐसे लोगों को भेजना चाहिए, जो इस देश में बदलाव की शुरुआत कर सकें और ख़ासकर गांवों को मुख्य इकाई मानकर योजनाएं बनाने का क़ानून पास कर सकें, व्यवस्था परिवर्तन के लिए उनके 25 सूत्रीय कार्यक्रम के पक्ष में फौरन क़ानून बनाए जा सकें, अन्ना राजनीतिक दलों की आंखों की किरकिरी बन गए और इसीलिए उन्होंने मीडिया के साथ मिलकर अन्ना को ब्लैकआउट करने की कोशिश की. उन्होंने अपने संपर्क के पत्रकारों के जरिए अन्ना हज़ारे से कमाल के सवाल पुछवाए, जिनमें नरेंद्र मोदी एवं राहुल गांधी में से कौन बेहतर प्रधानमंत्री साबित हो सकता है या वह किसका समर्थन करते हैं, जैसे सवाल थे. दरअसल, राजनीतिक दल यह चाहते हैं कि अन्ना हज़ारे नरेंद्र मोदी या राहुल गांधी का समर्थन करें. लेकिन अन्ना ने दोनों का ही विरोध किया और कहा कि ये दोनों लोग भारत के प्रधानमंत्री बनने के योग्य नहीं हैं.
अन्ना की जनतंत्र यात्रा का मुख्य निचोड़ एक नई राजनीति की शुरुआत करना था. इसीलिए उन्होंने यह घोषणा कि वह सितंबर के पहले हफ्ते में जन-संसद बुलाएंगे. जन-संसद से उनका मतलब इस देश के लोगों को जगाना और यह बताना है कि वे प्रमुख हैं, संसद प्रमुख नहीं है. अन्ना की सभाओं से यह बात भी निकली कि यह संसद जनता के हितों के ख़िलाफ़ खड़ी है. अन्ना ने यह कहने में कोई गुरेज या हीलाहवाली नहीं किया कि इस संसद को बदलना ही चाहिए और इस संसद में वे लोग जाने चाहिए, जो आम जनता के प्रति वफादार हों, सद्चरित्र हों, भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ हों, जो महंगाई व बेरोजगारी से लड़ने की योजनाएं बना सकें. अन्ना की इस यात्रा में जनरल वी के सिंह ने साफ़ कहा कि ऐसे लोग चाहिए, जो जनता के हित के लिए 6 महीने के अंदर क़ानून बना सकें. जनरल वी के सिंह ने यह भी कहा कि जो लोग कहते हैं कि उनके हाथ में कोई जादू की छड़ी नहीं है, वे झूठ बोलते हैं. उनका इशारा प्रधानमंत्री की तरफ़ था. जनरल वी के सिंह ने अन्ना हज़ारे की तरफ़ से यह भी कहा कि वे सारे काम 6 महीने के भीतर शुरू किए जा सकते हैं, जिन्हें करने से राजनीतिक दल इसलिए डरते हैं, क्योंकि वे जनता के हित के लिए कुछ करना ही नहीं चाहते. अन्ना की यात्रा में मौलाना सूफी जिलानी एक बड़े व्यक्तित्व के रूप में उभरे. उनके भाषणों को पूरे देश में पसंद किया गया, उनकी भाषा ने आम जनता को उत्साहित और उत्तेजित भी किया. सूफी जिलानी ने देश के लोगों और सारे राजनीतिक दलों के बीच एक साफ़ रेखा खींची और कहा कि देश के लोग और राजनीतिक दल आमने-सामने खड़े हैं.
मीडिया एवं राजनीतिक दलों का मानना है कि अन्ना हज़ारे एक 75 साल के बुजुर्ग हैं और अब उनकी वाणी में वह दम नहीं है कि वह खड़े हो सकें. प्रसिद्ध पत्रकार एवं फिल्मकार प्रीतीश नंदी का मानना है कि जो लोग अन्ना हज़ारे के रूप में परिवर्तन का एक मौक़ा देख रहे थे, उन्हें लग रहा है कि अन्ना परिवर्तन का वक्त 10-25 साल बताकर निराश कर रहे हैं. अन्ना को ऐसे बहुत से लोग मिले, जिन्होंनेे कहा कि अन्ना, आख़िरी लड़ाई लड़ने का वक्त अब आ गया है. अन्ना हज़ारे इस यात्रा में संत की तरह देखे गए और लोग उसी आदर एवं विश्वास के साथ उन्हें सुनते भी देखे गए. बहुत सी जगहों पर औरतें, बच्चे, बुजुर्ग और नौजवान हाथ जोड़कर उनका भाषण सुनते देखे गए. अन्ना हज़ारे के दिल्ली में जन-संसद बुलाने के ऐलान का हर जगह लोगों ने समर्थन किया और वादा किया कि अगर अन्ना उन्हें दिल्ली बुलाएंगे, तो वे ज़रूर आएंगे. अब जन-संसद में क्या होगा, कैसा फैसला होगा और जन-संसद किस तरह का देश चलाने का निर्देश राजनीतिक दलों को देगी, इसका ़फैसला तो सितंबर के पहले हफ्ते में दिल्ली के रामलीला मैदान में ही होगा.