दूसरे स्वधिनता संघर्ष पर निकले अन्ना |
अन्ना हजारे की प्रासंगिकता बढ़ गई |
कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी की पूरी कोशिश है कि अरविंद केजरीवाल और अन्ना हजारे आपस में लड़ जाएं. अरविंद केजरीवाल और अन्ना हजारे इस तथ्य को कितना समझते हैं, पता नहीं. लेकिन अगर उन्होंने इसके ऊपर ध्यान नहीं दिया, तो वे सारे लोग जो उनके प्रशंसक हैं, न केवल भ्रमित हो जाएंगे, बल्कि निराश भी हो जाएंगे. पूरा पढ़े |
जनरल वी के सिंह और अन्ना हजारे की चुनौतियां |
भारत में लोकतंत्र की इतनी दुर्दशा आज़ादी के बाद कभी नहीं हुई थी. संसदीय लोकतंत्र में राजनीतिक दलों का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है, लेकिन विडंबना यह है कि आज संसदीय लोकतंत्र को चलाने वाले सारे दलों का चरित्र लगभग एक जैसा हो गया है. चाहे कांग्रेस हो या भारतीय जनता पार्टी या अन्य राजनीतिक दल, जिनका प्रतिनिधित्व संसद में है या फिर वे सभी, जो किसी न किसी राज्य में सरकार में हैं, सभी का व्यवहार सरकारी दल जैसा हो गया है. इसीलिए उन सवालों पर जिनका रिश्ता जनता से है, सभी दल एक-दूसरे की मदद कर रहे हैं और आम जनता के हित के खिला़फ खड़े दिखाई दे रहे हैं. जनता से सीधा जुड़ा सवाल भ्रष्टाचार का है. पूरा पढ़े |
हर तरफ अन्ना ही अन्ना |
बिहार का शायद ही कोई ऐसा कोना हो, जहां अन्ना हजारे की 30 जनवरी की रैली को लेकर तैयारियां और लोगो का उत्साह चरम पर न हो. लोगों को इंतज़ार है तो बस अन्ना हजारे और जनरल वीके सिंह के पटना पहुंचने का. गांधी मैदान में होने वाली उनकी जनतंत्र रैली से बिहार के लोगों को बहुत सारी उम्मीदें हैं. सूबे के लोगों को इस बात का गर्व है कि भ्रष्टाचार की लड़ाई का शंखनाद करने के लिए अन्ना हजारे ने बिहार की धरती को ही चुना. यही वजह है कि रैली की व्यवस्था में लगे लोग पीछे छूट रहे हैं और जनता खुद पहल कर जनतंत्र रैली की तैयारी में रात दिन जुटी हुई है. पूरा पढे |
देश को बचाने का यह आखिरी मौका है |
देश का प्रजातंत्र खतरे में है. देश चलाने वालों ने झूठ बोलने, धोखा देने और मर्यादाओं को लांघने को ही राजनीति समझ लिया है. नतीजा यह हुआ कि संसद में नेता झूठ बोलने लगे हैं और सदन में सर्वसम्मति बनाकर जनता के साथ धोखा किया जाने लगा है. सरकार ऐसी-ऐसी नीतियां बना रही है, जिससे सा़फ ज़ाहिर होता है कि संविधान को ही ताक़ पर रख दिया गया है. पूरा पढ़े |
न थकेंगे, न झुकेंगे |
आखिर अन्ना हज़ारे क्या हैं, मानवीय शुचिता के एक प्रतीक, बदलाव लाने वाले एक आंदोलनकारी या भारतीय राजनीति से हताश लोगों की जनाकांक्षा? शायद अन्ना यह सब कुछ हैं. तभी तो इस देश के किसी भी हिस्से में अन्ना चले जाएं, लोग उन्हें देखने-सुनने दौड़े चले आते हैं? उनकी सभाओं में उमड़ने वाली भीड़ को देखकर कई राजनेताओं को रश्क होता होगा. छात्र, युवक, युवतियां, वृद्ध, महिलाएं, समर्पित कार्यकर्ता, किसान, बुनकर हों या डॉक्टर-इंजीनियर, किसी भी राजनीतिक दल की एक दिनी सभा में समाज के इतने अलग-अलग वर्ग के लोग शायद ही शिरकत करते नज़र आएं, लेकिन न जाने अन्ना में ऐसा क्या जादू है, जो हर उस आदमी को अपने पास खींच लाता है, जो इस देश से प्यार करता है, जो इस देश को बर्बाद होते नहीं देखना चाहता और जो इस देश को बचाना चाहता है. पूरा पढ़े |
अन्ना हजारे नेता नहीं, जननेता हैं |
शायद जयप्रकाश नारायण और कुछ अंशों में विश्वनाथ प्रताप सिंह के बाद देश के किसी नेता को जनता का इतना प्यार नहीं मिला होगा, जितना अन्ना हजारे को मिला है. मुझे लगा कि अन्ना हजारे के साथ कुछ समय बिताया जाए, ताकि पता चले कि जनता उन्हें किस नज़रिए से देखती है और उन्हें क्या रिस्पांस देती है. मैं अन्ना हजारे के साथ लगभग तीस घंटे से ज़्यादा रहा. उनके साथ दिल्ली से गुवाहाटी गया. गुवाहाटी में वह लोगों से मिले. वहां उन्होंने रैली को संबोधित किया और मैं फिर वापस दिल्ली आ गया. वे तीस घंटे का़फी अद्भुत रहे. मैं दिल्ली एयरपोर्ट पर पहुंचा तो मैंने देखा कि अन्ना हजारे अकेले अपना सामान लिए हुए प्रवेश द्वार से दाखिल हुए. उनके दाखिल होते ही दस-पंद्रह लोग उनकी तऱफ दौड़े और उनके हाथों से उन्होंने सामान ले लिया. सामान जैसे ही उन्होंने लिया, अन्ना हजारे ने उन्हें मना करने की कोशिश की, पर वे लोग नहीं माने. तब तक अन्ना हजारे ने मुझे देख लिया और वह धीरे-धीरे मेरी ओर बढ़े, मैं भी उनकी ओर बढ़ा. उन्होंने मुझसे पूछा, आपकी सीट कहां है? मैंने उन्हें बताया कि मेरी सीट और आपकी सीट बिल्कुल आसपास है. उन्होंने कहा कि कैसे? तो मैंने कहा कि एयरलाइंस वालों को आपका नाम देखकर अंदाज़ा हो गया था कि आप गुवाहाटी जाने वाले हैं, इसलिए उन्होंने आपको पहली ही क़तार में सीट दी. पूरा पढ़े |
प्रधानमंत्री के नाम अन्ना की चिट्ठी |
सेवा में, श्रीमान् डॉ. मनमोहन सिंह जी, प्रधानमंत्री, भारत सरकार, नई दिल्ली.
विषय : गैंगरेप-मानवता को कलंकित करने वाली शर्मनाक घटना घटी और देश की जनता का आक्रोश सड़कों पर उतर आया. ऐसे हालात में आम जनता का क्या दोष है?
महोदय, पूरा पढे |
अब अन्ना की नहीं, आपकी परीक्षा है |
अन्ना हज़ारे और जनरल वी के सिंह ने बनारस में छात्रों की एक बड़ी सभा को संबोधित किया. मोटे अनुमान के हिसाब से 40 से 60 हज़ार के बीच छात्र वहां उपस्थित थे. छात्रों ने जिस तन्मयता एवं उत्साह से जनरल वी के सिंह और अन्ना हज़ारे को सुना, उसने कई संभावनाओं के दरवाज़े खोल दिए. पर सबसे पहले यह देखना होगा कि आख़िर इतनी बड़ी संख्या में छात्र अन्ना हज़ारे और वी के सिंह को सुनने के लिए क्यों इकट्ठा हुए, क्या छात्रों को विभिन्न विचारों को सुनने में मज़ा आता है, क्या वे नेताओं के भाषणों को मनोरंजन मानते हैं, क्या छात्रों में जनरल वी के सिंह और अन्ना हज़ारे को लेकर ग्लैमरस क्रेज़ दिखाई दे रहा है या फिर छात्र किसी नई खोज में हैं? ये सवाल इसलिए दिमाग़ में पैदा होते हैं, क्योंकि छात्रों ने 1988-89 के बाद अब तक कोई बड़ा आंदोलन न देखा है, न किया है. जबकि इस बीच लगभग सभी राजनीतिक दल दिल्ली की सत्ता में हिस्सेदारी कर चुके हैं और आज भी किसी न किसी राज्य में सत्ता में हैं. पूरा पढे |
अन्ना हजारे और जनरल वी के सिंह द्वारा जारी नीति मसौदा |
सरकार को आम जनता की कोई चिंता नहीं है. संविधान के मुताबिक भारत एक लोक कल्याणकारी राज्य है. इसका साफ मतलब है कि भारत का प्रजातंत्र और प्रजातांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार आम आदमी के जीवन की रक्षा और उसकी बेहतरी के लिए वचनबद्ध है. लेकिन सरकार ने इस लोक कल्याणकारी चरित्र को ही बदल दिया है. सरकार बाजार के सामने समर्पण कर चुकी है, लेकिन संसद में किसी ने सवाल तक नहीं उठाया. अगर भारत को लोक कल्याणकारी की जगह नवउदारवादी बनाना है तो इसका फैसला कैसे हो? क्या यह फैसला सिर्फ सरकार या कुछ राजनीतिक दल कर सकते हैं? नहीं, इसका फैसला देश की जनता करेगी. यह देश की जनता का अधिकार है कि वह किस तरह की सरकार से शासित होना चाहती है. इसलिए हमारी यह मांग है कि इस संसद को भंग किया जाए ताकि जनता फैसला कर सके कि हमारी सरकार का चरित्र कैसा हो, वह संविधान द्वारा स्थापित लोक कल्याणकारी हो या नवउदारवादी. सरकार ने संविधान के प्रीएम्बल की आत्मा और उसकी भावनाओं को दरकिनार कर दिया है. संविधान का भाग 4, जिसे हम डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स ऑफ स्टेट पॉलिसी कहते हैं, उसकी पूरी तरह से उपेक्षा हो रही है. सरकार के साथ साथ विपक्षी पार्टियां भी इस मुद्दे पर चुप हैं.बाबा भीमराव अंबेदकर द्वारा बनाए गए संविधान की भावनाओं को दरकिनार करने का हक सरकार को किसने दिया है? दरअसल, गरीबों और आमलोगों के हितों के बजाय निजी कंपनियों के हितों के लिए नीतियां बनाई जा रही हैं. संसद में इसके ख़िलाफ कोई आवाज भी नहीं उठा रहा है. इसलिए हमारी मांग है कि इस संसद को फौरन भंग किया जाए. कांग्रेस पार्टी, भारतीय जनता पार्टी और सारे राजनीतिक दल अपना पक्ष जनता के सामने रखें. वो बताएं कि वे बाजारवाद के मूल्यों पर सरकार चलाना चाहते हैं या फिर संविधान की आत्मा और भावनाओं को लागू करना चाहते हैं. इस संसद ने देश के लोगों को प्रतिनिधित्व करने का हक इसलिए भी खत्म कर दिया है क्योंकि देश में किसान आत्महत्या कर रहे हैं. जल, जंगल, जमीन के मुद्दे पर देश के गरीबों का भरोसा खत्म हो गया है. सरकार नदियों और जल स्रोतों का निजीकरण कर रही है. खदानों के नाम पर जंगलों को निजी कंपनियों को बेचा जा रहा है और आदिवासियों को बेदखल किया जा रहा है. इतना ही नहीं, किसानों की उपजाऊ जमीन अधिग्रहण करके सरकार निजी कंपनियों के साथ मिलकर उसकी बंदरबाट कर रही है. जिस जमीन पर देश के लोगों का हक है वह निजी कंपनियों को बांटी जा रही है. सरकार की इन नीतियों से आम जनता परेशान है और सांसदों ने जल, जंगल, जमीन के मुद्दे को संसद में उठाना भी बंद कर दिया है. इसलिए इसका फैसला होना जरूरी है कि देश के जल, जंगल, जमीन पर किसका हक है. इस बात का फैसला करने का हक भी देश की जनता को है, इसलिए अगले चुनाव में यह तय होगा कि देश की जनता किन नीतियों के पक्ष में है, इसलिए इस संसद का भंग होना अनिवार्य है. संविधान के तहत सरकार को यह दायित्व दिया गया है कि जितने भी वंचित हैं जैसे कि दलित, आदिवासी, घुमंतू, मछुआरे,महिलाएं, पिछड़े एवं मुसलमानों की जिंदगी को बेहतर करने के लिए नीतियां बनाई जाएं. देश के फैसले में इनलोगों की हिस्सेदारी हो. इसके लिए यह जरूरी है कि इन्हें सामान अवसर और सत्ता में हिस्सेदारी मिले. सत्ता में हिस्सा देना तो दूर, सरकार किसी के मुंह का निवाला तो किसी के हाथ से काम को छीनने का काम कर रही है. भ्रष्टाचार, घोटाले, महंगाई और बेरोजगारी की वजह से देश के हर वर्ग के लोगों का विश्वास इस संसद पर से उठ गया है. इसलिए हम ये मांग करते हैं कि इस संसद को भंग कर फौरन चुनाव की घोषणा हो, ताकि नई सरकार लोगों की आशाओं के अनुरूप काम कर सके. एक तरफ देश में गरीबी है, भुखमरी है, बेरोजगारी है, अशिक्षा है और दूसरी तरफ देश में मूलभूत सेवाओं को बहाल करने के लिए सरकार कर्ज लेती है. विदेशी पूंजी के लिए देश के सारे दरवाजे खोलने को सरकार एकमात्र विकल्प बता रही है, जबकि विदेशी बैंकों में भारत का कालाधन जमा है. अगर ये कालाधन वापस आ जाता है तो देश की आर्थिक स्थिति सुधर सकती है. दुनिया भर के देश अपने देश का कालाधन वापस लाकर अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने में लगे हैं, लेकिन हमारी संसद कालाधन को वापस लाने के मुद्दे पर खामोश है. देश के लोगों को ये भी नहीं पता है कि किन किन लोगों का कितना कालाधन विदेशी बैंकों में जमा है. इसलिए इस संसद को भंग किया जाना चाहिए, ताकि अगली सरकार कालाधन वापस ला सके. सरकार ने डीजल के दाम बढ़ा दिए. इसकी वजह से महंगाई पर जबरदस्त असर पड़ा है. देश के कई शहरों में टैम्पो और ऑटोरिक्शा वाले आंदोलन कर रहे हैं. किराया बढ़ गया है. यूपीए गंठबंधन में शामिल पार्टियों ने इनका साथ छोड़ दिया. कांग्रेस पार्टी बिल्कुल अकेली खड़ी है. देश की जनता पर मुश्किल फैसले थोपना क्या प्रजातंत्र है एलपीजी यानि कुकिंग गैस की कीमत मनमाने ढंग से बढ़ा दी गई और दलीलें यह दी गई कि पेट्रोलियम कंपनियों को नुकसान हो रहा है. दूसरी तरफ एक के बाद एक केंद्रीय मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं. लेकिन प्रधानमंत्री ने प्रजातंत्र में कैबिनेट की सामूहिक जिम्मेदारी के मंत्र को बड़ी आसानी से भुला दिया है. पहले सरकार फैसला नहीं ले रही थी और जब अब फैसले लेने लगी तो आम जनता की मुसीबत बढ़ाने का फैसला ले रही है. इसलिए हमारी मांग है कि संसद को भंग कर फौरन चुनाव हों, ताकि राजनीतिक पार्टियां इन मुद्दों पर अपनी राय जनता के सामने रखे. इस बात का फैसला हो सके कि क्या हम संविधान के मुताबिक देश में नीतियां बनाना चाहते हैं या फिर बाजार के मुताबिक नीतियों के पक्ष में हैं. हमारा मानना है कि जनसंसद दिल्ली की संसद से बड़ी है, क्योंकि जनसंसद यानी देश की जनता ने दिल्ली की संसद संविधान के अनुसार बनाई है. भारत का संविधान, भारत के लोगों यानि वी द पीपुल के संकल्प का परिणाम है. इसलिए जनसंसद का स्थान दिल्ली की संसद से बहुत बड़ा है और बहुत ऊंचा है. संसद में बैठे हुए लोग यह कह रहे थे कि कानून तो संसद में बनता है, रास्ते पर थोड़े ही बनते हैं. और वो जनसंसद को या जनता को मानने को ही तैयार नहीं थे. पर कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अपने कार्यकर्ताओं को कोयला घोटाले के सवाल पर स्पष्ट आदेश दिया, कि रास्ते पर उतरो. हमें जनता के सामने जाना पड़ेगा, दूसरी तरफ भाजपा वाले भी कह रहे हैं कि हमें जनता के सामने जाना पड़ेगा. इन्होंने मान लिया है कि दिल्ली की संसद से जनसंसद बड़ी है. दिल्ली की संसद में देश के भविष्य के बारे में कोई सोचता दिखाई नहीं दे रहा है. बल्कि अलग अलग पक्ष और अधिकांश पार्टियों में भ्रष्टाचार बहुत बढ़ गया है. चिंता की बात यह है कि जो करप्शन मिलकर हो रहा है वह बहुत बड़ा खतरा है. जैसे कोयला घोटाला, कोयला घोटाले में सब शामिल हैं. टू जी स्पेक्ट्रफ घोटाला, इसमें सब फंसे हुए हैं. आज जनता सोचती है कि संसद में बैठे लोग देश को उज्जवल भविष्य नहीं दे सकते, अगर देश को उज्जवल भविष्य देना है, चाहे वह भ्रष्टाचार मुक्त भारत हो या महात्मा गांधी के संकल्प का गफाम विकास हो. क्योंकि गांधी जी कहते थे कि देश बदलने के लिए पहले गांव बदलना होगा, जब तक गांव नहीं बदलेंगे तब तक देश कैसे बदलेगा. गांव बदलने के संदर्भ में गांधी जी ने कहा था कि मानवता और प्रकृति दोनों का दोहन नहीं होना चाहिए. विकास की दो शर्तें गांधी जी ने रखी थी कि न मानवता का दोहन हो, न प्रकृति का दोहन हो. आज हम देख रहे हैं कि सब मिलकर प्रकृति का दोहन कर रहे हैं. पेट्रोल, डीजल, कोयला, जंगल काट रहे हैं, विदेश के लोगों को बुला रहे हैं, किसानों की जमीन जबरदस्ती छीन रहे हैं, उस पर बड़े-बड़े इंडस्ट्री लगा रहे हैं, जिसकी वजह से हवा प्रदूषित हो रही है, पानी प्रदूषित हो रहा है और समाप्त हो रहा है. इससे देश आगे नहीं बढ़ेगा, कभी न कभी विनाश होगा, ऐसा विकास सही विकास नहीं है, ऐसा महात्मा गांधी कहते थे. देश में कई जगह ग्राम स्वराज के अच्छे प्रयोग हुए हैं जहां पेट्रोल नहीं, डीजल नहीं, कोयला नहीं, हमने सिर्फ प्रकृति का उपयोग किया, और लोग स्वावलंबी हो गए. बारिश की एक एक बूंद को रोका, पानी का संचयन किया, रिचार्ज किया, ग्राउंड वाटर लेवल बढ़ाया, गांव की मिट्टी गांव में रखी जिससे कृषि का विकास हुआ. हाथ के लिए काम, पेट के लिए रोटी गांव में ही मिल गई. इसकी वजह से शहर की तरफ जानेवाले लोगों की रोकथाम हो गई. अब देश की जनता के लिए सोचने का समय आ गया है, अगर जनता आज नहीं सोचेगी तो हमारी आने वाली पीढ़ियां खतरे में पड़ जाएंगी. तब तक ये लोग कुछ बाकी रखेंगे या नहीं, इसमें संदेह है. दिल्ली की संसद सफल नहीं हो रही, सब मिलकर देश को लूट रहे हैं. अंग्रेजों ने जितना नहीं लूटा उससे ज्यादा ये लोग लूट रहे हैं. अंग्रेजों ने डेढ़ सौ साल में जितना भारत को नहीं लूटा, पैंसठ सालों में इन्होंने देश को उनसे ज्यादा लूट लिया. यह बात स्पष्ट हो गई है कि संसद में बैठे लोग और सत्ता में बैठी सरकार देश को अच्छा भविष्य नहीं देंगे. 26 जनवरी, 1950 को पहला गणतंत्र बना. उसी दिन देश में प्रजा की सत्ता आ गई. प्रजा इस देश की मालिक हो गई. सरकार की तिजोरी में जमा होने वाला पैसा जनता का है. पूरी जनता इस पैसे का कहीं नियोजन नहीं कर सकती इसीलिए संविधान के मुताबिक हमने प्रातिनिधिक लोकशाही स्वीकार की. मालिक ने अपने प्रतिनिधि सेवक के नाते भेजे. राष्ट्रपति ने जिन अधिकारियों का चयन किया वे सरकारी सेवक हैं यानी जनता के सेवक हैं. जब जनता ने सेवक को भेजा है और सेवक अच्छा काम नहीं कर रहा तो उसे निकालने का अधिकार जनता का है, क्योंकि जनता मालिक है. मालिक ने जिन सेवकों को भेजा था, वे देश और समाज की भलाई का सही काम नहीं कर रहे हैं. इसलिए उनको निकालने का समय आ गया है. इसलिए जनता की भलाई के लिए इस देश की संसद को भंग होना चाहिए. ये जनता के हाथ में है. अगर पूरे देश में जनता रास्ते पर उतर जाए तो संसद भंग होगी. इसकी जगह नई संसद बनानी है जिसके लिए जनता नए प्रतिनिधि चुनेगी जो चरित्रवान हों, हमलोग चरित्रवान प्रतिनिधियों के चुनने में मदद करने के लिए सारे देश में घूमेंगे. नए चुने जाने वाले प्रतिनिधि को चरित्रशील, सेवाभावी, सामाजिक और राष्ट्रीय दृष्टिकोण वाला होना चाहिए यानी उनकी छवि ठीक हो, सेवाभावी हो और सक्षम हो. उसे एक एफिडेविट देना होगा और उसके बाद यदि उसने इसका पालन नहीं किया तो जनता उस प्रतिनिधि को वापिस बुलाने का अधिकार रखेगी. इससे देश का भविष्य बदलने की शुरुआत हो सकती है. आज तो प्रतिनिधि वापिस बुलाने का ही कोई प्रावधान नहीं है, जिसकी वजह से किसी प्रतिनिधि को कोई डर ही नहीं रहता. वो कहता है कि पांच साल के लिए मुझे चुन लिया गया है मेरा कोई क्या बिगाड़ सकता है. पांच साल के लिए तो हम राजा बन गए. आज की पार्लियामेंट को भंग कर नई पार्लियामेंट जनता को बनानी है और नई पार्लियामेंट बनाने के लिए जनता की शर्तें होंगी. ये जनता का हक है. यह जनता का अधिकार है. जनता की संसद जब बनेगी, तब उसमें जनलोकपाल आएगा, ग्राम विकास आएगा, राइट टू रिजेक्ट आएगा, ग्राम सभा को पावर आएगा, साथ ही अंग्रेजों के बनाए गए सारे सड़े गले कानूनों को बदला जाएगा. सभी को शिक्षा, सभी को स्वास्थ्य, सभी को रोजगार, और सभी के लिए विकास की योजना बनेगी. देश को स्वावलंबी बनाएंगे. देश में जनतंत्र है, जनतंत्र के मुताबिक कानून होने चाहिए. संविधान में सामाजिक विषमता दूर होने की बात कही गई, आर्थिक विषमता दूर होने की बात कही गई, जात पात के भेद समाप्त करने की बात कही गई. ये जात पात में लोगों को बांट रहे हैं, संविधान का पालन संसद में बैठे लोग कहां कर रहे हैं. इसीलिए जनता को आज की पार्लियामेंट बर्खास्त करके नई पार्लियामेंट और चरित्रशील उम्मीदवारों को चुनकर अपने लिए नए भविष्य का निर्माण करना होगा. इस परिवर्तन के लिए हम जनता के जागने उठने और आंदोलन करने का आह्वान करते हैं. (जनतंत्र मोर्चा का यह नीति मसौदा 29 अक्टूबर 2012 को मुंबई में जारी किया गया) |